हर तरह का दो-जहाँ में साज़ है सामान है लफ़्ज़-ए-कुन से इर्तिक़ा का और भी इम्कान है ज़ात के इरफ़ान से हासिल रुमूज़-ए-काएनात ज़ात से शाइ'र के हासिल हुस्न का विज्दान है इक तमाशा माह-ओ-गुल का आसमाँ से ता-ज़मीं आदमी सद-रंग जल्वा देख कर हैरान है शर्म से रुख़्सार-ए-गुल कुछ और गुलगूँ हो गया इस असर पर आइने की आँख भी हैरान है आप की जम्हूरियत में सब तो हैं शाइ'र नहीं शायरी हर क़ौम की तहज़ीब की पहचान है हुस्न को देना 'पयामी' शायरी का पैरहन फ़र्श से ता-अर्श मौज-ए-रंग का तूफ़ान है