हज़ार शब के दरीचों में माहताब सजे न मेरा चाक-ए-गरेबाँ सिला न ख़्वाब सजे हक़ीक़तों से न उलझो बहुत भयानक हैं सजे सजाओ अगर देर तक सराब सजे अंधेरे घर में जले फिर से आरज़ू के चराग़ जब इक शिकस्ता से गुल-दान में गुलाब सजे चराग़-ए-शब की तरह हम जलाए जाएँगे हमारे बाद ही मुमकिन है आफ़्ताब सजे हदीस-ए-दिल न सही ज़ेब-ए-दास्ताँ ही सही हमारे ज़िक्र से इक डायरी के बाब सजे मिरा कलाम भी मेरी ही तरह है 'नक़वी' अब उस के शेल्फ़ में कब देखिए किताब सजे