हर्फ़ हर्फ़ गूँधे थे तर्ज़ मुश्कबू की थी तुम से बात करने की कैसी आरज़ू की थी साथ साथ चलने की किस क़दर तमन्ना थी साथ साथ खोने की कैसी जुस्तुजू की थी वो न जाने क्या समझा ज़िक्र मौसमों का था मैं ने जाने क्या सोचा बात रंग-ओ-बू की थी इस हुजूम में वो पल किस तरह से तन्हा है जब ख़मोश थे हम तुम और गुफ़्तुगू की थी