हर्फ़-ए-हक़ कौन कहे अब सर-ए-दरबार मियाँ सर झुकाए हैं खड़े सब तिरे सरदार मियाँ कोई वर्दी न सनद है उसे दरकार मियाँ रहनुमा मेरा हो बस साहब-ए-किरदार मियाँ कैसे होती है सहर किस को सहर कहते हैं वही जाने जो रहा रात में बेदार मियाँ तुम सहारा मुझे क्या दोगे कभी मुश्किल में तुम तो ख़ुद से भी नज़र आते हो बेज़ार मियाँ हाए क्या सोच के निकले थे कभी घर से तुम माँगते फिरते हो अब साया-ए-दीवार मियाँ रौशनी भी नहीं इन में न है ख़ुशबू कोई क्या किताबें तिरी क्या हैं तिरे अशआर मियाँ ख़ूँ किया दिल को लिया दाग़ जिगर पर मैं ने मुझ से पूछो कि है क्या इश्क़ का आज़ार मियाँ ग़म न सीने से लगाए मैं जहाँ से जाता मुझ को दुनिया में जो मिलता कोई ग़म-ख़्वार मियाँ हर तरफ़ जल्वा-नुमाई थी उसी की 'मसऊद' तुम रहे फिर भी यहाँ तिश्ना-ए-दीदार मियाँ