हरीम-ए-काबा बना दी वो सर-ज़मीं मैं ने तिरे ख़याल में रख दी जहाँ जबीं मैं ने मुझी को पर्दा-ए-हस्ती में दे रहा है फ़रेब वो हुस्न जिस को किया जल्वा-आफ़रीं मैं ने चटक में ग़ुंचे की वो सौत-ए-जाँ-फ़ज़ा तो नहीं सुनी है पहले भी आवाज़ ये कहीं मैं ने रहीन-ए-मंज़िल-ए-वहम-ओ-गुमाँ रहा 'अख़्तर' इसी में ढूँढ लिया जादा-ए-यक़ीं मैं ने