हासिल दिल-ए-तबाह को राहत कभी न हो हम को ग़म-ए-फ़िराक़ से फ़ुर्सत कभी न हो अब चौंकता नहीं हूँ तुम्हारे सितम पे मैं ये भी है क्या मक़ाम कि हैरत कभी न हो गर हाल-ए-दिल सुनाएँ तो किस को सुनाइए ऐसी तो दुश्मनों की भी क़िस्मत कभी न हो घबरा के हादसात से दामन बचा सके इतनी दिल-ए-तबाह की जुरअत कभी न हो हम मुंतज़िर हों और गुरेज़ाँ हों बिजलियाँ ऐसी निगाह-ए-नाज़ क़यामत कभी न हो क़ाएम रहे ये रब्त ग़म-ओ-दर्द से 'निशा' सोचें अगर मफ़र की भी सूरत कभी न हो