हासिल-ए-मोहब्बत में ग़म बहुत ज़रूरी है ये अगर नहीं तो फिर शाइ'री अधूरी है प्यार बिन मुकम्मल कब आदमी हुआ जानाँ प्यार जो नहीं तो फिर ज़िंदगी अधूरी है चाहतों की रुत हो तो धूप धूप मौसम में हर क़दम पे है शिमला हर क़दम मसूरी है स्वाभिमान से बढ़ कर कुछ नहीं है जीवन में फिर ये क्यों ख़ुशामद है क्यों ये जी हुज़ूरी है जागते हुए अक्सर ख़्वाब देखने वालों ख़्वाब भी ज़रूरी है नींद भी ज़रूरी है सब्र 'अंजना' मुझ से पूछता ही रहता है यार के मिलन में अब और कितनी दूरी है