हसीन नग़्मा-सराओ! बहार के दिन हैं लबों की जोत जलाओ! बहार के दिन हैं तकल्लुफ़ात का मौसम गुज़र गया साहब! नक़ाब रुख़ से उठाओ बहार के दिन हैं गुलों की सेज तो तौहीन है हसीनों की दिलों की सेज बिछाओ बहार के दिन हैं बहार बीत गई तो तुम्हारी क्या इज़्ज़त सितम-ज़रीफ़ घटाओ! बहार के दिन हैं है उम्र-ए-रफ़्ता से परख़ाश क्या भला हम को क़रीब है तो बुलाओ! बहार के दिन हैं मुग़न्नियो! तुम्हें कहते हैं हातिफ़-ए-रंगीं समन-ए-बरों को जगाओ! बहार के दिन हैं ये अंगबीन सी रातें बड़ी मुक़द्दस हैं दिलों के दीप जलाओ! बहार के दिन हैं 'अदम' ने तौबा तो कर ली मुग़न्नियो! लेकिन तुम उस को राह पे लाओ बहार के दिन हैं