हौसले हारे हुए कश्ती भी टूटी हुई है पत्ते बिखरे हुए हैं झील भी उतरी हुई है दिलबरी के सभी आदाब उसे आते हैं पहले भी एक नज़र से कहीं गुज़री हुई है खिड़कियाँ खोल ज़रा बूंदों की टप-टप तो सुन ऐसे मौसम में भला किस लिए रूठी हुई है ख़ुद भी गुज़रे हो कभी ऐसे किसी तजरबे से या मोहब्बत पे फ़क़त फ़िल्म ही देखी हुई है मैं ने रुकना नहीं अब उस ने पलटना हो तो हो आसरा करता नहीं आस भी रक्खी हुई है ये मोहब्बत है मियाँ सब से यूँही मिलती है तुझ को लगता है तिरे साथ अनोखी हुई है मर भी जाऊँ इसे दरिया में नहीं डालूँगा मुद्दतों बाद तो मुझ से कोई नेकी हुई है