हवा चमन की भला हम को साज़गार कहाँ बहार नाम को है असल में बहार कहाँ जो तुम नहीं थे तो इक लुत्फ़-ए-इंतिज़ार तो था तुम आ गए हो तो अब लुत्फ़-ए-इंतिज़ार कहाँ चमन से दूर भी देखी है फ़स्ल-ए-गुल हम ने मगर वो सिलसिला-ए-नग़्मा-ए-बहार कहाँ नुमूद-ए-सुब्ह हुई और उजड़ गई महफ़िल मय-ए-शबाना कहाँ अब वो मय-गुसार कहाँ चमन ये शहर-ए-निगाराँ बना तो है लेकिन मिरी बहार को छोड़ आई है बहार कहाँ हुई हैं उन से उचटती सी कुछ मुलाक़ातें मगर ये कैफ़ ब-अंदाज़ा-ए-ख़ुमार कहाँ न सीना चाक है कोई न अब गरेबाँ चाक गया न जाने वो सर्माया-ए-बहार कहाँ ब-फ़ैज़-ए-अज़्मत-ए-इस्याँ मिली है ये तौक़ीर वगर्ना दर-ख़ुर-ए-रहमत गुनाहगार कहाँ न वो सोहबत-ए-माज़ी न उस की याद ऐ 'अर्श' जो कारवाँ ही नहीं है तो फिर ग़ुबार कहाँ