हम अपने सर पे तो सूरज उठा के चलते हैं सुना है बर्फ़ के घर में भी लोग जलते हैं ये कैसी रुत है कि नेज़ों पे सर उछलते हैं हमारे शहर के बच्चों के दिल दहलते हैं जो रेडियम के उजाले रुख़ों पे मलते हैं वो अपनी ज़ात से बाहर नहीं निकलते हैं वो हम कि ख़ार भी हम से जुदा नहीं होते वो कैसे लोग हैं फूलों को भी मसलते हैं जो मुझ पे गुज़रे हैं बीते हैं जिन को झेला है वो हादसे मिरे जाम-ए-ग़ज़ल में ढलते हैं फ़लक से आग बरसती तो कोई बात न थी ज़मीन वाले ज़मीं पर ही ज़ह्र उगलते हैं वो फ़स्ल-ए-गुल न सही ये ख़िज़ाँ सही 'अनवर' कभी तो काग़ज़ी फूलों के दिन बदलते हैं