हवा हवस के इलाक़े दिखा रही है मुझे गुल-ए-गुनह की महक फिर बुला रही है मुझे अभी न जाऊँगा मैं दूसरे सितारे पर कि ये ज़मीन अभी रास आ रही है मुझे चराग़ भी मिरा चेहरा है शब भी मेरा जिस्म तो फिर ये ख़ल्क़-ए-ख़ुदा क्यूँ जला रही है मुझे समझ में कुछ नहीं आता कि ये हवा-ए-वजूद जला रही है मुझे या बुझा रही है मुझे गियाह-ए-इश्क़ भी मेरी गुल-ए-हवस भी मिरे तो क्यूँ ज़मीन तमाशा बना रही है मुझे