हवा का हुक्म भी अब के नज़र में रक्खा जाए किसी भी रुख़ पे दरीचा न घर में रक्खा जाए ये काएनात अभी तक मिरे तवाफ़ में है अजब नहीं इसे यूँही सफ़र में रक्खा जाए मैं संग-ए-सादा हूँ लेकिन मिरी ये हसरत है मकान दोस्त के दीवार-ओ-दर में रक्खा जाए ये जल-बुझेगा इसी ज़ोम-ए-आगही के सबब दिए को और न बाब-ए-ख़बर में रक्खा जाए नशा उड़ान का ऐसे उतरने वाला नहीं कुछ और वज़्न मिरे बाल-ओ-पर में रक्खा जाए कोई कहीं न कहीं इक कमी सी है मुझ में मुझे दोबारा गुल-ए-कूज़ा-गर में रक्खा जाए वो आईना है तो हैरत किसी जमाल की हो जो संग है तो कहीं रहगुज़र में रक्खा जाए वो चाहता है कि 'तारिक़'-नईम तुझ को भी तमाम उम्र उसी के असर में रक्खा जाए