मेरी निगाह भी मुझे पहचानती नहीं हालाँकि तेरे शहर में मैं अजनबी नहीं रंजूर धूप से हूँ न हूँ चाँदनी से ख़ुश दाइम जहाँ में धूप नहीं चाँदनी नहीं शादाबी-ए-चमन की निशानी यही तो है वो शाख़-ए-ख़ुश्क जो कभी होती हरी नहीं धरती हिले हवाएँ चलें बिजलियाँ गिरें इक शाख़ है दरख़्त को जो छोड़ती नहीं उन से उमीद-ए-दाद-ए-ग़ज़ल किस लिए 'ज़िया' ये शा'इरी है आज की ना-शा'इरी नहीं