हज़ारों लफ़्ज़ हैं लेकिन हर इक की जेब ख़ाली है ये इफ़्लास-ए-लिबास-ए-शायरी यारो मिसाली है लगे हैं कान आवाज़ों पे लेकिन लफ़्ज़ गूँगे हैं गुज़रते मौसमों की दास्ताँ सब से निराली है किसी तारीफ़ ही की रौशनी में आँख खुलती है बताने की ज़रूरत है ये काली रात काली है हमीं तन्हा नहीं हैं जुस्तुजू की दौड़ में लेकिन हमीं से किस लिए फिर आज हर ज़र्रा सवाली है ये यकताई हमारी हम से ही मंसूब है 'हामिद' ये अपनी वज़्अ अपनी तर्ज़ ख़ुद हम ने निकाली है