हिजाज़ी ले गई हम ने भुलाए तौर-ए-तुरकानी बची ले दे के हम में अब फ़क़त अपनों की मन-मानी जमाल-ए-सुब्ह पैदा कर कि नाज़िर ख़ुद-बख़ुद आएँ उड़ा लहजे से वो ख़ुशबू लगे जो बू-ए-बुसतानी हुकूमत का तमाशा है इमारत का तकब्बुर है जो कल आज़ाद थे वो आज बन बैठे हैं ज़िंदानी सँभल ऐ नौजवान अब वक़्त भी नज़दीक आता है मुझे तो ख़ूँ रुलाती है लहू की तेरे अर्ज़ानी तअ'य्युश में गँवा बैठेगा मीरास-ए-सलफ़ सुन ले जफ़ा-कश बन तो फिर तेरा है ये तख़्त-ए-सुलैमानी कहाँ तेरी हमिय्यत और ग़ैरत है वही जिस से डरे थे क़ैसर-ओ-किसरा गिरा था ताज-ए-ख़ाक़ानी हलाकत-ख़ेज़ दलदल में उतारा किस ने उम्मत को बता 'दानिश' वो जुरअत थी कि था अंदाज़-ए-रहबानी