हिज्र से मरहला-ए-ज़ीस्त अदम है हम को फ़ासला इतना ज़ियादा है कि कम है हम को साए से उठ के अभी धूप में जा बैठेंगे घर से सहरा तो फ़क़त एक क़दम है हम को पा-ब-जौलाँ तिरे कूचे में भी खींचे लाए शहना-ए-शहर से उम्मीद-ए-करम है हम को क़हत-ए-मामूरा-ए-सूरत से हैं पत्थर आँखें अब ख़ुदा भी नज़र आए तो सनम है हम को देख क्या आइना बे-जुम्बिश-ए-लब कहता है जो ख़मोशी से हो वो बात अहम है हम को बे-यक़ीनी को यक़ीं है कि हुआ कुछ भी नहीं और इक हादिसा आँखों का भरम है हम को हम कहाँ और कहाँ कूचा-ए-'ग़ालिब' 'आसिम' जादा-ए-रह कशिश-ए-काफ़-ए-करम है हम को