हिक़ारत की नज़र से देखता है हर बशर मुझ को ज़माना बोलता है तुम भी कह लो दर्द-ए-सर मुझ को मैं हूँ वो शम्अ जिस की क़द्र-ओ-क़ीमत सिर्फ़ इतनी है किसी ने ताक़ पर रक्खा किसी ने क़ब्र पर मुझ को भरोसे की सड़क पर बुग़्ज़ के इतने गढ़े देखे कि अब इक शख़्स भी लगता नहीं है मो'तबर मुझ को हवाओं ने तो कश्ती का मिरी रुख़ मोड़ ही डाला ऐ लहरो तुम भी कर लो आ के अब ज़ेर-ओ-ज़बर मुझ को फ़रेब-ए-मंज़िल-ए-मक़्सद से वाक़िफ़ हो गया हूँ मैं ख़ुदारा आप रहने दीजिए महव-ए-सफ़र मुझ को घिरा हूँ आज ज़ुल्मत में मगर उम्मीद है 'अंजुम' कि मिल ही जाएगी कल ज़िंदगानी की सहर मुझ को