हिसार-ए-कासा-ए-सर तोड़ कर निकल आए तलब हुई थी तो सज्दों के पर निकल आए हर इक ज़मीर से पर्दा उठा गए पत्थर किसी के ऐब किसी के हुनर निकल आए सँवर सँवर के मशिय्यत सँवारती है जिन्हें इधर तो कोई नहीं हम किधर निकल आए मिरा ख़रोश-ए-जुनूँ जब भी रंग-पाश हुआ मिरी तरफ़ निगराँ कितने दर निकल आए कहाँ है होली जो देखे ब-यक-करिश्मा दो-कार घिरे थे आग में हम भी मगर निकल आए ब-ईं-नज़ाकत-ए-तख़्लीक़ ठोकरें खाने ये पत्थरों में कहाँ शीशागर निकल आए फ़राज़-ए-मंज़िल-ए-रफ-रफ सवारगी सौगंद ख़ला में और बसीरत के पर निकल आए लब-ए-फ़ुरात अजब शान-ए-सरफ़राज़ी थी गुमाँ था दश्त में नेज़ों के सर निकल आए है आगही भी अगर जाँ-गुसिल तो हो 'ग़ौसी' हरीम-ए-बे-ख़बरी से मगर निकल आए