हो कश्फ़-ए-नज़र हम पे तो हो जाए अयाँ और दीदार मुसलसल हो समाँ पर हो समाँ और हो कुन-फ़-यकून और चले कार-ए-ज़माँ और पैदा नए तारे हों मुनव्वर हो जहाँ और हों महर-ओ-मह-ओ-नज्म मिरे पाँव के नीचे हों ख़ुल्द से ऊपर भी बहुत कौन-ओ-मकाँ और हो रख़्त-ए-सफ़र सूरत-ए-बुर्राक़ हमारा मेराज पे मेराज हो हर रोज़ यहाँ और गर्दिश हो इशारों पे मिरे शम्स-ओ-क़मर की बाँटूँ मैं हर इक फ़र्द को इक उम्र-ए-रवाँ और ख़लियों में जो घड़ियाँ हैं वो क़ाबू में हों अपने दिल आए तो पीरी हो दिल आए तो जवाँ और हो पैरहन-ए-सुब्ह में सदियों का उजाला हो फिर न कभी शाम की लाली में फ़ुग़ाँ और हो मस्जिद-ए-नबवी मिरी आवाज़ बिलाली वो सामने बैठे हों मैं दूँ एक अज़ाँ और 'सफ़वत' सर-ए-फ़िहरिस्त हैं गो लौह-ए-तख़य्युल कहते हैं कि 'ग़ालिब' का है अंदाज़-ए-बयाँ और