हो के इस चश्म-ए-मय-परस्त से मस्त क्या उलझता है आज मस्त से मस्त एक ही लग़्ज़िश और गुज़र भी गए अक़्ल के हर बुलंद-ओ-पस्त से मस्त कौन नज़रों में अब समाए कि हम हैं तिरी चश्म-ए-मस्त-मस्त से मस्त इस गुलिस्ताँ में पीने आए हैं हर गुल-ए-सा-नगीं-ब-दस्त से मस्त सब हैं आग़ोश-ए-होश में 'अमजद' एक ही हूँ दम-ए-अलस्त से मस्त