मोजज़ा कोई दिखाऊँ भी तो क्या चाँद में शहर बसाऊँ भी तो क्या याद आता है बराबर कोई मैं उसे याद न आऊँ भी तो क्या रब्त पहले ही नहीं कम उस से राब्ता और बढ़ाऊँ भी तो क्या वो न बदलेगा रवय्या अपना मैं अगर बात निभाऊँ भी तो क्या जाने मजबूर है कितना वो भी कुछ उसे याद दिलाऊँ भी तो क्या मेरे आँगन में न उतरेगा वो चाँद लौ सितारों से लगाऊँ भी तो क्या लोग वीरानों पे जाँ देते हैं इक नगर दिल में बसाऊँ भी तो क्या कौन ख़तरे को करेगा महसूस मैं अगर शोर मचाऊँ भी तो क्या कौन सोचेगा कि रोना क्या है मैं अगर रोऊँ रुलाऊँ भी तो क्या पहली बार आज लुटा हूँ कोई बे-सदा हश्र उठाऊँ भी तो क्या मैं ने जो देखा है जो सोचा है हू-ब-हू सामने लाऊँ भी तो क्या लोग बौने हैं यहाँ पहले भी और क़द अपना बढ़ाऊँ भी तो क्या एक शाएर ही रहूँगा 'रूही' बहर क़तरे में दिखाऊँ भी तो क्या