जो बातों से पलटता जा रहा है मिरा जी उस से हटता जा रहा है कहाँ लहरें कभी ये सोचती हैं किनारा कैसे कटता जा रहा है मिला है फ़िक्र को फैलाव जब से वजूद अपना सिमटता जा रहा है ये कैसी धूप है क़दमों से मेरे मिरा साया लिपटता जा रहा है लिया जो फ़ैसला भी ज़िंदगी में वो सब का सब उलटता जा रहा है तरक़्क़ी पर तो हर शय है यहाँ की मगर मेआ'र घटता जा रहा है जिसे पढ़ना नहीं है कुछ भी 'शाहिद' वो बस पन्ने पलटता जा रहा है