हो नज़र ऐसी कि बस दिल की निगाह तक पहुँचे दिल में उतरे तो कभी हाल-ए-तबाह तक पहुँचे मंज़िलें उन को मिला करती हैं आसानी से तीरगी छोड़ के जो मिशअल-ए-राह तक पहुँचे अब तलक जैसी भी गुज़री हमें मंज़ूर मगर अब तो बन जाए कुछ ऐसी कि निबाह तक पहुँचे जीतना इश्क़ की बाज़ी कोई आसान नहीं ऐन मुमकिन है कोई हुस्न गवाह तक पहुँचे तिश्नगी को मिरी ए'जाज़ अता कर ऐसा ज़ेर-ए-लब प्यास बढ़े ऐसी कि आह तक पहुँचे इश्क़-मस्लक में 'सदफ़' एक ही दस्तूर है बस ज़ख़्म-ए-दिल हद से बढ़े और कराह तक पहुँचे