हो सई-ए-तलब या तर्क-ए-तलब हर इक में रहे नाकाम से हम आराम की ख़ातिर क्या न किया महरूम रहे आराम से हम ताबिंदा है जिस से शहर-ए-बुताँ मौसूम तो हैं उस नाम से हम फिरते हैं दयार-ए-जानाँ में हर चंद बड़े बदनाम से हम इक रोज़ ये रस्म-ए-शहर-ए-सनम होगी ये हमें मालूम न था वो नाम ख़ता-कारों में है मौसूम हुए जिस नाम से हम क्या हाल-ए-शब-ए-फ़ुर्क़त होगा क्या रंग-ए-शब-ए-हिज्राँ होगा बेताब-ओ-परेशां आशुफ़्ता रंजूर हैं फिरते शाम से हम हम अहल-ए-जुनूँ अब अहल-ए-सितम की सफ़ में गिने जाते हैं जहाँ आए थे समझ कर घर अपना बे-फ़िक्र थे पर अंजाम से हम रुख़ ऐसा हवा का कुछ पल्टा जो होना नहीं था फिर वो हुआ मुमकिन था जहाँ तक कोशिश की पर बच न सके इल्ज़ाम से हम कुछ काम न आया जज़्बा-ए-दिल बे-सूद ख़ुलूस-ए-शौक़ 'ज़ुबैर' उम्मीद वहाँ किस से रक्खें याद आएँ जहाँ दुश्नाम से हम