जो बात वज्ह-ए-सुकूँ है दिल-ओ-नज़र के लिए वही है दाम-ए-बला हस्ती-ए-बशर के लिए किसे ख़बर थी है पर्वर्दा-ए-शब-ए-आलाम चराग़ कितने बुझाए हैं जिस सहर के लिए कहें तो क्या कहें उन को जो खो के मंज़िल ही तरस रहे हैं फ़क़त आज तक सफ़र के लिए खुली न आँख मगर इस के बावजूद उन की फ़रेब खा गए जो लोग उम्र-भर के लिए जुनून-ए-शौक़ न हो कम किसी क़दम पर भी ये ख़िज़्र-ए-राह है दर-अस्ल हर सफ़र के लिए वो फ़स्ल-ए-गुल में जो सरमाया-ए-दिल-ओ-जाँ थे वही नज़ारे क़यामत हैं अब नज़र के लिए उसी की शक्ल निगाहों में फिरती रहती है मिला है दाग़-ए-अलम जिस से उम्र-भर के लिए 'ज़ुबैर' शौक़-ए-फ़रावाँ ही साथ ले के चले कि ज़ाद-ए-राह तो कुछ चाहिए सफ़र के लिए