होने को तो दुनिया में हैं कितने ही हसीं और लेकिन नहीं तुम जैसा कोई ज़ोहरा-जबीं और तुम पास रहोगे तो हिफ़ाज़त से रहोगे इस दौर में कोई भी नहीं मुझ सा अमीं और दोज़ख़ का मुझे ख़ौफ़ है नै ख़्वाहिश-ए-जन्नत अब कुछ भी मोहब्बत के सिवा दिल में नहीं और कैसा ये जुनूँ है मिरा कोई तो बताए जाना था मुझे और कहीं पहुँचा कहीं और गर इश्क़ की ताक़त को कोई लाए अमल में दुनिया में बना सकता है वो ख़ुल्द-ए-बरीं और असरार हक़ीक़त के अयाँ मुझ पे हुए हैं अब हो गया पुख़्ता मिरा ईमान-ओ-यक़ीं और शायद ये है मेराज मिरे हुस्न-ए-नज़र की वो दूर भी होते हैं तो लगते हैं क़रीं और अल्फ़ाज़ की ख़ुशबू में तख़य्युल को बसा कर कहता हूँ ग़ज़ल उन के लिए एक हसीं और सदमात 'अज़ीज़' इतने उठाए हैं जहाँ में शायद कि न हो मेरी तरह कोई हज़ीं और