होश साक़ी को न ख़ुम का है न पैमाने का इस तरह हाल ये अबतर हुआ मयख़ाने का शिद्दत-ए-ग़म से निकल ही पड़े आख़िर आँसू शम्अ' से सोज़ न देखा गया परवाने का जाँ-ब-हक़ हो गया होता ये कभी का बीमार गर यक़ीं होता न उस शोख़ के आ जाने का दैर बनता है हरम और हरम दैर कभी का'बा कहते हैं जिसे नाम है बुत-ख़ाने का तौक़-ओ-ज़ंजीर में बाँधे न बंधेगा हरगिज़ बढ़ गया और जुनूँ गर तिरे दीवाने का वो पस-ए-मर्ग अब आए हैं अयादत को मिरी जबकि दुनिया में है शोहरा मिरे मर जाने का किस क़दर 'शौक़' हसीनों के खिंचे हैं नक़्शे दिल के हर ज़र्रा में आलम है परी-ख़ाने का