हुआ करे जो अँधेरा बहुत घनेरा है किसी की ज़ुल्फ़ तले हर समय सवेरा है हिकायत-ए-लब-ओ-रुख़्सार में गुज़ार दें वक़्त जहाँ में सिर्फ़ घड़ी दो घड़ी बसेरा है जलाओ घर की मुंडेरों पे चश्म-ओ-दिल के दिए बहाओ गीत बिरह के बहुत अँधेरा है वो मोहतसिब हो कि शहना कि मुफ़्ती-ओ-क़ाज़ी हमारा कोई नहीं है हर एक तेरा है मिरे दिमाग़ के ख़न्नास ने पसंद किया खंडर के हफ़्त-बलाओं का जिस में डेरा है मैं बर्ग-ए-ज़र्द हूँ शायान-ए-इल्तिफ़ात नहीं हसीन गुल को हसीं तितलियों ने घेरा है