हुई कम-ज़र्फ़ी-ए-ग़म हिज्र में गिर्यां हो कर एक आँसू ने डुबोया हमें तूफ़ाँ हो कर दिल में इक हसरत-ए-ता'मीर है सो रंगों से और आबाद हुआ घर मिरा वीराँ हो कर खुल गया चश्म-ए-तमाशा का भरम जलवों पर क्या मिला जल्वा-गह-ए-हुस्न में हैराँ हो कर इक नया दाम-ए-वफ़ा डाल रहे हैं शायद तेरे गेसू मिरे शानों पे परेशाँ हो कर आ ही जाते हैं अलम-ख़ाना-ए-तारीक में वो चाँदनी बन के कभी सुब्ह-ए-दरख़्शाँ हो कर मेरी आवाज़ में उन की भी सदा मुज़्मर है उन की महफ़िल से जो आया हूँ ग़ज़ल-ख़्वाँ हो कर ये भी इक शोख़ का फ़ैज़ान-ए-नज़र है 'साग़र' कि जहाँ देख रहा है मुझे हैराँ हो कर