हुज़ूर ऐसे न कीजिए कोई मर गया तो बला का ये वक़्त तुम पे आ के ठहर गया तो ये फ़िक्र मुझ को नहीं कि ख़ुर्शीद मुँह को आवे ये फ़िक्र मुझ को कि तेरे दिल में उतर गया तो मैं तर्क-ए-मय तो किए हुए हूँ पे सोचता हूँ कि पीर-ए-मय मेरे सामने से गुज़र गया तो मैं मुंतज़िर आप का रहूँगा फिर आइएगा करूँ मैं कैसे यक़ीं कहीं मैं भी मर गया तो मैं खुल के जीता नहीं जियूँ भी भला मैं कैसे कहीं अगर जीने से मिरा भी जी भर गया तो सितारे क्या हैं मैं आसमाँ ही लिए फिर आऊँ गुमाँ ये गुज़रे कहीं वो काफ़िर मुकर गया तो वो मेरे हक़ में गवाही देने तो आ गया है डरा हूँ सच कहने से कहीं वो भी डर गया तो तुम्हें भी 'हसरत' की हालत-ए-हाल पर नहीं रंज ग़मों का सैलाब सम्त छोड़े उधर गया तो