हम अहल-ए-ख़िरद की बातों से कुछ चैन जहाँ में पा न सके आज ऐसी पिला दे ऐ साक़ी ता-हश्र हमें होश आ न सके हाइल थी इधर ख़ुद्दारी-ए-दिल माने था ग़ुरूर-ए-हुस्न उधर महरूमी-ए-क़िस्मत क्या कहिए हम जा न सके वो आ न सके तर्क-ए-उल्फ़त की बातें तो समझाईं बहुत नासेह ने हमें जीने का सहारा क्या होगा ये बात ज़रा समझा न सके है कुफ़्र दयार-ए-उल्फ़त में ग़म के हाथों नालाँ होना वो नाम-ए-मोहब्बत ही क्यों ले जो ताब ग़मों की ला न सके दिल संग-दिलों से जब उलझे क़ीमत उस की बढ़ जाती है उस शीशे की है क़द्र ही क्या जो पत्थर से टकरा न सके दिल की धड़कन पर होता है धोका क़दमों की आहट का आवाज़ तो आती है पैहम फिर क्यों वो अभी तक आ न सके उलझी हुई गुत्थी मिलने की किस तौर सुलझती ऐ हमदम कुछ हम से कोशिश हो न सकी कुछ ज़हमत वो फ़रमा न सके क्या क्या न सितम हम पर ढाए अपनों ने करम के पर्दे में फिर भी हम इस का शिकवा तक इक बार ज़बाँ पर ला न सके वो इस से ज़ियादा क्या करते 'शैदा' तेरी ग़म-ख़्वारी में आँसू तो बहाए आँखों से कुछ मुँह से मगर फ़रमा न सके