कितने अरमाँ कितनी उम्मीदों के पैकर ले गया अब के फिर सैलाब-ए-ग़म आँखों के मंज़र ले गया ख़ामुशी ओढ़े हुए दीवाना मेरे गाँव का चुन के तेरे शहर का हर एक पत्थर ले गया मुझ को पहले कोई प्यासा वादी-ए-क़ुतबैन का अपने कूज़े में समो कर फिर समुंदर ले गया अब के मेरे क़त्ल की साज़िश में है वो भी शरीक माँग कर मुझ से ही मेरा दोस्त ख़ंजर ले गया बस इसी इक बात पर रूठे हैं अर्बाब-ए-हुनर ग़म ज़माने भर का क्यों ‘महबूब-अनवर' ले गया