हम दर्द-ए-मोहब्बत का मुदावा नहीं करते कुछ भी हो मगर अर्ज़-ए-तमन्ना नहीं करते ख़ुद ज़ात पे अपनी जो भरोसा नहीं करते दुनिया में कभी नाम वो पैदा नहीं करते मंज़िल की तरफ़ बढ़ते हैं मंज़िल के मुसाफ़िर हो जान का ख़तरा भी तो पर्वा नहीं करते जो रिंद हैं मयख़ाने के आदाब से वाक़िफ़ ख़ुम भी जो चढ़ा जाएँ तो बहका नहीं करते देखा न कभी हुस्न को गुस्ताख-नज़र से हम ख़्वाब के आलम में भी ऐसा नहीं करते जो इज़्ज़त-ओ-ख़ुद्दारी के हैं क़द्र-शनासा वो इज़्ज़त-ओ-ख़ुद्दारी का सौदा नहीं करते हम देखते हैं एक नज़र उस को सर-ए-आम छुप-छुप के कभी हुस्न को देखा नहीं करते वो लोग जो हैं वाक़िफ़-ए-तक़्दीस-ए-ग़म-ओ-दर्द बर्बाद ग़म-ओ-दर्द की दुनिया नहीं करते है अपने तईं हुर्मत-ए-फ़न जान से बढ़ कर हम हुर्मत-ए-फ़न को कभी रुस्वा नहीं करते 'मग़मूम' जिन्हें वास्ता है नक़्द-ओ-नज़र से तारीफ़ किसी की भी वो बेजा नहीं करते