हम दर्द-ए-निहाँ को महफ़िल में रूस्वा-ए-हिकायत कर न सके कहने को बहुत कुछ था लेकिन कुछ उन से ख़िताबत कर न सके ऐ हुस्न ज़रा दम भर के लिए कुछ शोख़ तुझे भी होना था दो दिल थे फ़िदा आपस में मगर इज़हार-ए-मोहब्बत कर न सके गुज़रे हुए लम्हों की यादें अब शौक़-ए-वफ़ा से कहती हैं जो शय थी क़रीब-ए-क़ल्ब-ओ-जिगर उस शय से रिफ़ाक़त कर न सके हर शौक़ बढ़ा कर सपने में ज़हमत तो उठाई राहों की पहुँचे तो दर-ए-का'बा पे मगर का'बे की ज़ियारत कर न सके सीने में ख़लिश है फ़ुर्क़त की बेताब तमन्ना है मेरी जो हम से मोहब्बत करते थे हम उन पे इनायत कर न सके चंचल भी वो थे चालाक भी थे पर शर्म-ओ-हया भी ऐसी थी हम मन के पुराने पापी भी कुछ उन से शरारत कर न सके वाइज़ ने कहा था ज़ब्त करो जज़्बात-ए-मोहब्बत को लेकिन हम उस की हिदायत पर चल कर इस दिल की हिफ़ाज़त कर न सके दुनिया के ग़मों का ख़ौफ़ नहीं बेबाक मुसाफ़िर को 'शाफ़ी' दम भर के लिए पलकों के तले अफ़्सोस इक़ामत कर न सके