मह-ओ-नुजूम की सूरत सफ़र में रहते हैं कि शब-गज़ीदा तलाश-ए-सहर में रहते हैं हमारा अक़्ल से कुछ रब्त ही नहीं जैसे जुनूँ-असीर हैं दिल के असर में रहते हैं न कोई छत है न दीवार है न दरवाज़ा ये मो'जिज़ा है कि हम ऐसे घर में रहते हैं वफ़ा-तलब तो बहुत हैं वफ़ा-शिआ'र नहीं ये किस जहाँ में हैं हम किस नगर में रहते हैं बिछड़ के दोनों ही आबाद हैं ख़ुदा शाहिद वो अपने घर में तो हम अपने घर में रहते हैं उन्हीं से ताज़गी-ए-ज़ेहन है नसीब मुझे गुलाब चेहरे हमेशा नज़र में रहते हैं जहाँ से रब्त न कोई तअल्लुक़ अपना 'ख़तीब' हम अहल-ए-इश्क़ सदा ख़्वाब-असर में रहते हैं