हम एक दूसरे के इस क़दर ख़ुमार में हैं बिछड़ चुके हैं मगर फिर भी इंतिज़ार में हैं कमान खींचने वालो को इस का इल्म नहीं हदफ़ में हैं ही नहीं हम तो आर-पार में हैं ये बात सच है मगर हम ही देर में समझे न उस के और न हम अपने इख़्तियार में हैं मुसाफ़िरों की थकन ये बता रही है हमें उन्हें ख़बर ही नहीं है वो किस दयार में हैं वो अहल-ए-ज़र्फ़ थे साया तलाश करते रहे हम अहल-ए-कश्फ़ हैं उड़ते हुए ग़ुबार में हैं जो ख़्वाब टूट गए सब्र दे गए मुझ को जो ख़्वाब बच गए वो चश्म-ए-अश्क-बार में हैं