मोहब्बत के जो थे आदाब सारे वो मंज़र हो गए नायाब सारे मुझे ख़ुश देख कर होते थे जो ख़ुश कहाँ वो खो गए अहबाब सारे हैं क्यों नाराज़ उन से अब्र-ए-बाराँ पड़े हैं खेत जो बे-आब सारे सँभालेगा उन्हें कब तक समुंदर जो उस के बोझ हैं गिर्दाब सारे गुज़रते हैं गिराँ चश्म-ए-कुहन में नई तहज़ीब के आदाब सारे