हम जो इन हाथों को मसरूफ़-ए-अमल रखते हैं

हम जो इन हाथों को मसरूफ़-ए-अमल रखते हैं
मसअले जो भी हों ख़ुद सामने हल रखते हैं

अपने हिस्से में फ़क़त बाग़ की मेहनत आई
फूल रखते हैं न हम पास में फल रखते हैं

दिन को मुफ़्लिस हैं तो क्या रात है शाहों जैसी
हम भी ख़्वाबों में कई ताज-महल रखते हैं

हम उन्हें देख के जीते हैं सितम तो देखो
जो हमें देख के पेशानी पे बल रखते हैं

हम वहाँ दर्स-ए-वफ़ा दें भी तो क्या लोग जहाँ
बुग़्ज़ सीनों में दिमाग़ों में ख़लल रखते हैं

आप के शे'रों में 'फ़रहत' ग़म-ए-दौराँ कैसा
अहल-ए-फ़न आप से उम्मीद-ए-ग़ज़ल रखते हैं


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