हम उन के सामने इस तरह शरह-ए-ग़म बयाँ कर लें हमारी दास्ताँ को ख़ुद वो अपनी दास्ताँ कर लें इलाही और भी कुछ तूल कर दे रोज़-ए-महशर को कि तेरे रू-ब-रू ख़त्म अपने ग़म की दास्ताँ कर लें वो बीनाई अता कर हम को या-रब दैर-ओ-का'बा क्या तिरे जल्वे का नज़्ज़ारा जहाँ चाहें वहाँ कर लें ख़िज़ाँ आने तो दो पूछेंगे हम उन से मिज़ाज उन का गुल-ओ-ग़ुंचे चमन में और दो दिन शोख़ियाँ कर लें शब-ए-ग़म ग़म के पालों को है हासिल क्या ब-जुज़ इस के तड़प लें आह-ओ-गिर्या कर लें फ़रियाद-ओ-फ़ुग़ाँ कर लें वो दिन आए कहीं शौक़-ए-जबीं-साई में ऐ 'साबिर' हो ज़ौक़ ऐसा कि जिस में जज़्ब उन का आस्ताँ कर लें