हुस्न ख़ुद जल्वा-नुमाई पे है मजबूर मियाँ जानिए इश्क़ को एक मुजरिम-ए-मा'ज़ूर मियाँ क़ुर्ब गर और न बढ़ जाए तो मेरा ज़िम्मा खींच कर देखिए अपने को ज़रा दूर मियाँ मिल रही है हमें क़िस्मत से वो सहबा कि जिसे पी के होता नहीं कोई भी मख़मूर मियाँ अपनी रातों को जो बेदार रखा करते हैं उन की बेदारी को दरकार है इक सूर मियाँ इश्क़ वो नार कि देखे से दिखाई न पड़े हुस्न वो नूर कि रहता नहीं मस्तूर मियाँ एहतिराम-ए-गुल-ओ-लाला ब-सर-ओ-चश्म मगर बचें काँटों से ये अपना नहीं दस्तूर मियाँ तुम जब आते हो तो कुछ ऐसा लगा करता है जैसे जन्नत से उतर आई हो इक हूर मियाँ हम ने सौ बार बसाया उसे उम्मीदों से दिल वो बस्ती है जो रहती नहीं मामूर मियाँ दार पर चढ़ने की ताक़त नहीं 'अर्शी' में अभी सर से पा तक है शिकस्तों से बदन चूर मियाँ