हुस्न ख़ुशबू पयाम कुछ भी न थी ज़िंदगी मेरे नाम कुछ भी न थी रंग बख़्शे हैं तेरी क़ुर्बत ने वर्ना शहरों की शाम कुछ भी न थी उन की मख़्सूस इक अदा के सिवा वज्ह-ए-तर्क-ए-सलाम कुछ भी न थी ज़िक्र ही से तिरे उजाला था शम्अ-ए-बज़्म-ए-कलाम कुछ भी न थी आदमी को नशा था रूहानी पहले तौक़ीर-ए-जाम कुछ भी न थी जैसे सहरा की हो सदा कोई क़दर-ए-अर्ज़-ए-अवाम कुछ भी न थी दिल-कुशा दर्द के सिवा 'असरार' वो जुदाई की शाम कुछ भी न थी