'इक़बाल' का सानी हैं न 'ग़ालिब' का बदल हैं बस हम भी नुमाइंदा-ए-तहज़ीब-ए-ग़ज़ल हैं ये सोच के हँसते हुए जीते हैं जहाँ में दुनिया के मसाइल ही हमारे लिए हल हैं जब ख़ुद से मुलाक़ात करूँ ख़ुद से करूँ बात अल्लाह मिरे वास्ते वो कौन से पल हैं पत्थर भी न मारोगे तो गिर जाएँगे सड़ कर इतराए हुए अपनी बुलंदी पे जो फल हैं पाई ये सज़ा काटे गए हाथ हमारे ये जुर्म कि हम नक़्श-गर-ए-ताज-महल हैं हालात की आँधी न मिटा पाएगी 'मेराज' पत्थर की लकीरों की तरह हम भी अटल हैं