कहाँ है अपनी मंज़िल और किसे मंज़िल समझते हैं न इतना होश है हम को न ये ऐ दिल समझते हैं मोहब्बत में किसे आसाँ किसे मुश्किल समझते हैं न इतनी है समझ हम में न ये ऐ दिल समझते हैं शब-ए-ग़म की मुसीबत में हमारे काम आता है ख़याल-ए-यार को हम मेहरबान-ए-दिल समझते हैं तलाश-ए-यार में क्यों दर-ब-दर की ख़ाक हम छानें हम अपने ख़ाना-ए-दिल को तिरी मंज़िल समझते हैं तुम्हारे हुस्न-ए-दिलकश पर मिटे जाते हैं दीवाने न जाँ को जाँ समझते हैं न दिल को दिल समझते हैं कुछ ऐसी रौशनी होती है उन की शाम-ए-फ़ुर्क़त में हम अपने दिल के दाग़ों को मह-ए-कामिल समझते हैं