हुस्न-ए-मुख़्तार सही इश्क़ भी मजबूर नहीं ये जफ़ाओं पे जफ़ा अब मुझे मंज़ूर नहीं ज़ुल्फ़-ए-ज़ंजीर सही दिल भी गिरफ़्तार मगर मैं तिरे हल्क़ा-ए-आदाब का महसूर नहीं दिल का सौदा है जो पट जाए तो बेहतर वर्ना मैं भी मजबूर नहीं आप भी मजबूर नहीं दामन-ए-दिल से ये बेगाना-रवी इतना गुरेज़ तुम तो इक फूल हो काँटों का भी दस्तूर नहीं चंद जाम और कि मैख़ाना-ए-जाँ तक पहुँचें ढूँडने वाले मुझे मुझ से बहुत दूर नहीं सब लिबासों में हैं पोशीदा गुनाहों की तरह दिल-ए-बेबाक भी महफ़िल के तईं और नहीं हर सुख़न होश का है मुफ़्ती-ए-हैरान के साथ सब पिए बैठे हैं और कोई भी मख़मूर नहीं सब रसन-बस्ता-ए-आज़ादी-ए-ईमान हुए अब कोई मेरे सिवा बंदा-ए-मजबूर नहीं उस से मिल कर भी उदास उस की जुदाई भी गराँ दिल ब-हर-हाल किसी तौर भी मसरूर नहीं