हुसूल-ए-बंदगी ज़ाहिद अगर दाग़-ए-जबीं तक है ये तेरी ख़ुद-फ़रेबी ख़ुद तिरे हद्द-ए-यक़ीं तक है किसी का हुस्न ख़ुद रुस्वा हुआ है दोनों आलम में हमारे इश्क़ की दुनिया जहाँ हम हैं वहीं तक है इताब-आलूदा नज़रों से मुझे ओ देखने वाले ये मेरी ज़िंदगी तेरी निगाह-ए-वापसीं तक है तसव्वुर भी उसी का याद उस की है ख़याल उस का कि उस पे दिल ही क्या क़ुर्बां मिरी जान-ए-हज़ीं तक है 'असर' इक दिन सुनाऊँगा उसी को हाल-ए-दिल अपना रसाई मेरी काबा तक नहीं का'बा-नशीं तक है