हुज़ूर-ए-दावर-ए-महशर क़यामत-ख़ेज़ सामाँ था हज़ारों हाथ थे और एक क़ातिल का गिरेबाँ था जो हम दोनों की क़िस्मत में परेशानी का सामाँ था मिरे दिल से ज़ियादा यार का गेसू परेशाँ था भला जन्नत में ज़ेर-ए-साया-ए-तूबा वो क्या जाते शहीदों को तिरी दीवार के साये का अरमाँ था खिले थे फ़स्ल-ए-गुल में फूल यूँ शाख़-ए-नशेमन में गुलिस्ताँ में नशेमन था नशेमन में गुलिस्ताँ था सर-ए-बालीं न आना था न आए चारासाज़ी को हमारे दर्द-ए-दिल का तो उन्हीं के पास दरमाँ था जुनूँ का जोश दूना हो गया फ़स्ल-ए-बहारी में मिरी क़िस्मत पे क्या क्या ख़ंदा-ज़न चाक-ए-गरेबाँ था निशान-ए-ज़ुल्म-ए-ज़ालिम सिर्फ़ मज़लूमों से मिलता था असीरान-ए-सितम की ज़ात से आबाद ज़िंदाँ था ज़माना जिस पे शैदा था उसी पर हम भी शैदा थे उसी पर हम भी क़ुर्बां थे ज़माना जिस पे क़ुर्बां था जब उन से पूछता हूँ कौन था इक़रार था जिस से वो कहते हैं हमीं हैं हाँ हमीं से अहद-ओ-पैमाँ था न शाहान-ए-सलफ़ हैं और न उन की सल्तनत बाक़ी कहाँ मुल्क-ए-सुलैमाँ था कहाँ क़स्र-ए-सुलैमाँ था अजब अंदाज़ से बिखरी हुई थी ज़ुल्फ़ आरिज़ पर वो ज़ालिम किस परेशाँ-हाल के ग़म में परेशाँ था दिल-ए-बर्बाद अपना बंदा-ए-इश्क़-ए-बुताँ ठहरा मुसलमाँ जिस को समझे थे वो काफ़िर ना-मुसलमाँ था हमारी लाश पर किस नाज़ से कहते हैं वो हँस कर नहीं मालूम क्या 'नौशाद' तेरे दिल में अरमाँ था