इब्तिदा का इंतिहा से राब्ता बाँधे हुए घर से निकला हूँ सफ़र का मुद्दआ' बाँधे हुए बे-यक़ीनी का ये आलम हो गया है आज-कल आदमी दस दस जगह है आसरा बाँधे हुए वो तो इस के हुक्म से होता है जो भी फ़ैज़ हो कीमिया कब है शिफ़ा का माद्दा बाँधे हुए फ़िक्र-ओ-फ़न की महफ़िलों में अब ये मंज़र आम हैं बे-हुनर बे-इल्म दस्तार-ए-अना बाँधे हुए उन के पाकीज़ा इरादों की हिफ़ाज़त ऐ ख़ुदा बे-लिबासों में हैं जो बंद-ए-क़बा बाँधे हुए ज़िंदगानी की हक़ीक़त ये समझ लीजिए कि बस बुलबुला है एक तूफ़ान-ए-बला बाँधे हुए कार-आमद जान कर इक आला-ए-गुफ़्त-ओ-शुनीद फिर रहे हैं लोग दामन से क़ज़ा बाँधे हुए