लम्हा लम्हा बीत चुका है अब जो तुम पछताओ तो क्या भूली-बिसरी यादें सब के आगे भी दोहराओ तो क्या कौन पराया दर्द समेटे कौन किसी का यार बने अपना ज़ख़्म है अपना प्यारे लोगों को दिखलाओ तो क्या पहले तो तुम आग लगा कर सब कुछ जलता छोड़ गए दीवारें तारीक हुई हैं अब इस घर में आओ तो क्या उस का चेहरा उस की आँखें उस के लब वो बात कहाँ रंग-बिरंगी अख़बारों की तस्वीरें दिखलाओ तो क्या मैं इक ऐसा पेड़ हूँ जिस पर बैठ के सब उड़ जाते हैं तुम भी मेरी शाख़ पे आ कर बैठो और उड़ जाओ तो क्या सोच की धूप तो क्या कम होगी सोच की किरनें आम हुईं रात के साए मेरे सर के सूरज पर फैलाओ तो क्या तोड़ के पैरों की ज़ंजीरें मैदानों का अज़्म करो अपने गरेबानों के परचम कमरों में लहराओ तो क्या अपने बदन को सूरत ऐसी नज़्र-ए-सलीब-ए-ज़ुल्म करो सोने की मा'सूम सलीबें सीनों पर लटकाओ तो क्या क्या क्या शे'र किए हैं तुम ने नक़्श ग़ज़ल की सूरत में हम तुम को 'नक़्क़ाश' कहेंगे तुम शाइ'र कहलाओ तो क्या