मायूस हो के बज़्म से तेरी निकल के हम शिद्दत से मुंतज़िर हैं पयाम-ए-अजल के हम तौबा तो की थी हम ने किसी के सुझाओ पर पी लेंगे आज तौबा इरादा बदल के हम तब शोला-ए-वफ़ा की तिरे रौशनी हुई जब ख़ाक हो चुके तिरी फ़ुर्क़त में जल के हम मस्जिद में थे तो वाइ'ज़-ओ-मुल्ला के बीच थे पहुँचे जो मय-कदे में तो साग़र में छलके हम फिरते हैं ज़ख़्म-ए-दिल लिए सहराओं में 'मजीद' क्या ख़्वाब देखते थे हसीं इक महल के हम